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Kashi Vishwanath : गंगा के तट पर देवताओं की नगरी काशी में शिवलिंग के रूप में विराजते हैं श्री विश्वनाथ, देते हैं मोक्ष का वरदान

Kashi Vishwanath : ईश्वर में आस्था हमारे देश की परंपरा ही नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। भक्तिमय माहौल विचारों को शुद्ध करता है और तन-मन को शांति देता है जिसका एहसास हमारी आत्मा को हो ही जाता है। तभी तो जब कोई ख़ुशी या दुःख का अवसर होता है या मन की बात ईश्वर से करनी हो तो हमारे कदम मंदिरों की ओर चल पड़ते हैं। जी हाँ, शिवमयी काशी की इस यात्रा में, हम आपको आज काशी विश्वनाथ मंदिर के रहस्यमयी पहलुओं से अवगत कराएंगे जहां पतित पावनी गंगा के तट पर देवताओं की नगरी काशी में श्री विश्वनाथ शिवलिंग के रूप में विराजते हैं, साक्षात महादेव। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में इनका नौंवा स्थान है।

शिव के त्रिशूल पर टिकी है काशी
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्री काशी विश्वनाथ दो भागों में है। दाहिने भाग में शक्ति के रूप में माँ पार्वती विराजमान हैं, दूसरी ओर भगवान् शिव वाम रूप में विराजमान है। काशी अनंतकाल से बाबा विश्वनाथ के जयकारों से गूँज रही है। शिवभक्त यहां मोक्ष की कामना से आते हैं। यह भी माना गया है कि काशी नगरी शिवजी के त्रिशूल पर टिकी हुई है व जिस जगह ज्योतिर्लिंग स्थापित है, वह जगह कभी भी लोप नहीं होती। स्कन्द पुराण के अनुसार जो प्रलय में भी लय को प्राप्त नहीं होती, आकाश मंडल से देखने में ध्वज के आकार का प्रकाश पुंज दिखती है, वह काशी अविनाशी है।

श्रावण में लगता है भक्तों का मेला
सावन आते ही भगवान् शिव के दर्शन के लिए देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। कहा गया है-”काश्यां मरणांमुक्ति” अर्थात् काशी में देह त्यागने से मुक्ति मिल जाती है और प्राणी दोबारा गर्भ में नहीं आता। भगवान शिव खुद यहां तारक मन्त्र देकर भक्तों को तारते हैं। इस मंदिर का प्रारम्भ में निर्माण कब हुआ, यह तो अभी तक ठीक से ज्ञात नहीं पर 3500 वर्षों का लिखित इतिहास है। इस मंदिर पर कई बार हमले किए गए, लेकिन उतनी ही बार इसका निर्माण भी किया गया। जब औरंगज़ेब, विश्वनाथ मंदिर का विध्वंस करने पहुंचा, तो शिवलिंग को एक कुएं में छिपा दिया गया था। मंदिर के ठीक बगल में ज्ञानवापी मस्जिद है, मंदिर और मस्जिद के बीच में कुंआ आज भी मौजूद है। बार-बार के हमलों और पुनः निर्मित किये जाने के बाद मंदिर के वर्तमान स्वरुप का निर्माण 1780 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया एवं महाराजा रणजीत सिंह जी ने मंदिर पर स्वर्णलेप चढ़वाया था। मंदिर के गुंबद में श्रीयंत्र लगा हुआ है। यहां के लोगों में विश्वास है कि इस गुंबद की तरफ देखकर जो भी मुराद मांगी जाती है, वह बाबा विश्वनाथ की कृपा से अवश्य पूरी होती है।

तंत्र-मंत्र का परम सिद्ध स्थान
मंत्र साधना के लिए भी यह प्रमुख स्थान है। गर्भगृह के चार द्वार भी तंत्र की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने गए हैं। पहला शांति द्वार, दूसरा कला द्वार, तीसरा प्रतिष्ठा द्वार और चौथा निवृत्त द्वार। इन चारों द्वारों युक्त गर्भगृह की पांच परिक्रमा करने से भक्तों को ऊपरी बाधाओं से मुक्ति मिलती है। पूरी दुनिया में ऐसा दूसरा स्थान कहीं नहीं, जहां शिव-शक्ति एकसाथ विराजमान हों और तंत्रद्वार भी हो। भोलेनाथ का ज्योतिर्लिंग ईशान कोण में है। इसका मतलब यह परिसर विद्या, गुण और हर कला से परिपूर्ण है। गणेश, माता पार्वती व माँ अन्नपूर्णा की मूर्तियों के साथ मंदिर में अन्य शिवलिंग भी हैं। यहां पर सभी मूर्तियों का श्रृंगार इस प्रकार किया जाता है कि मूर्तियों का मुख पश्चिम की ओर रहता है।

इस तरह शिव काशी में करने लगे वास
कल्पभेद के अनुसार विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में कई कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार जब भगवान शंकर पार्वती से विवाह करने के पश्चात् कैलाश पर्वत पर रहने लगे तब पार्वती जी इस बात से नाराज़ रहने लगीं। उन्होंने अपने मन की इच्छा भगवान शिव के सम्मुख रख दी। माता पार्वती की यह बात सुनकर भगवान् शिव कैलाश पर्वत को छोड़कर देवी पार्वती के साथ काशी नगरी में आकर रहने लगे। इस प्रकार भोलेनाथ काशीपुरी में आकर ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए स्थापित हो गए। तभी से काशी नगरी में विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग ही भगवान शिव का निवास स्थान बन गया।

जहां अपने गणों समेत विराजमान हैं शिव
पांच कोस (पंचक्रोशी) के क्षेत्रफल वाले काशी क्षेत्र को शिव और पार्वती ने प्रलयकाल में भी कभी त्याग नहीं किया। यही वजह है कि यह क्षेत्र ‘अविमुक्त’ क्षेत्र कहा गया है। स्कन्द (कार्तिकेय) ने अगस्त्य जी को बताया कि यह काशी क्षेत्र भगवान् शिव के आनंद के कारण है, इसलिए इसे आनंदवन भी कहा जाता है। शिवपुराण की अन्य कथा के अनुसार माना यह भी जाता है कि काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग किसी मनुष्य की पूजा, तपस्या से प्रकट नहीं हुआ बल्कि यहां निराकार परमेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात प्रकट हुए। शिव ने अपने वामांग से सतोगुण विष्णु को उत्पन्न किया और उनकी तपस्या के लिए मुक्तिदायिनी पंचक्रोशी को इस जगत में छोड़ दिया। तपस्या से प्रसन्न होकर शिव-पार्वती ने विष्णु से वर मांगने को कहा।

जगत कल्याण की कामना हेतु विष्णु ने भगवान् शिव से कहा- कि ब्रह्माण्ड के भीतर कर्मपाश से बंधे हुए प्राणी मोक्ष कैसे प्राप्त कर सकेंगे। विष्णु के आग्रह करने पर कैलाशपति, जो भीतर से सत्वगुणी और बाहर से तमोगुणी कहे गए है, शिव ने सद्गुण रूप में प्रकट होकर निर्गुण शिव से प्रार्थना करते हुए कहा – ”महेश्वर! मैं आपका ही हूं महादेव! मुझ पर कृपा कीजिए जगत्पते! लोकहित की कामना से आप सदा के लिए यहीं पर विराजमान हो जाइए, काशीपुरी को अपनी नगरी स्वीकार करें, आप उमा सहित सदा यहाँ विराजमान रहें” और इस तरह भगवान् शंकर वहां अपने गणों सहित सदैव के लिए विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में काशी में विराजमान हो गए।

राजसूय यज्ञ का मिलता है फल
काशीखण्ड में वर्णित है कि इस ज्योतिर्लिंग के स्पर्श मात्र से राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है व दर्शन मात्र से ज्ञान रुपी प्रकाश प्राप्त होता है। काशी में एक तिल भूमि भी लिंग से रहित नहीं है। ऐसा भी माना गया है कि एक बार बाबा विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आदि शंकराचार्य, संत एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानन्द, गोस्वामी तुलसीदास जैसे दिग्गजों ने बाबा के धाम में आकर शीश नवाया है।

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