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अलविदा 2020: ‘आंदोलन की आग’ से शुरुआत और कोरोना ‘वैक्सीन की उम्मीद पर खत्म’

अशाेक यादव, लखनऊ। नया साल, नई सुबह और एक नई उम्मीद, यह उम्मीद तरक्की के साथ ही अपने खुशनुमा जीवन की। कुछ ऐसा जो हम नए साल में करना चाहते हैं और उनको पूरा करने के लिए अपनी तैयारियां भी करते हैं। इतना ही नहीं अपने शुभचिंतकों को संदेश भेजकर उनके बेहतर भविष्य की कामनाएं भी करते हैं लेकिन कई बार इन सारी योजनाओं पर मानो कोई ग्रहण लग जाता है।

कुछ ऐसा ही ग्रहण लगा वर्ष 2020 में, शुरुआत से ही यह साल आंदोलन और महामारी की आग की भेंट चढ़ गया। साल के शुरुआती सप्ताह में ही सीएए और एनआरसी को लेकर धधक रही आंदोलन की आग ने कड़ाके की सर्दी तपीश माहौल दे दिया।

अभी इस आंदोलन से निपटने की केंद्र सरकार की ओर से तैयारी चल रही थी कि मार्च में आई एक महामारी ने पूरे समीकरण बिगाड़ कर रख दिए। यह महामारी थी कोरोना की, जिसने हजारों को अपनी चपेट में लेने के साथ ही सैकड़ों की जान ले ली। इसे बीमारी की दहशत कहें या फिर इसकी चपेट में आने से बचने की जुगत, शासन-प्रशासन ने सख्ती की तो लोग दो वक्त की रोजी-रोटी के मोहताज हो गए।

अपने के साथ ही मासूम बच्चों का पेट पालने के लिए कर्मयोद्धाओं के हाथ सड़कों पर दूसरों के सामने फैले नजर आए। कोई बच्चों के भूखे होने की दुहाई दे रहा था तो कोई खुद कई दिन से भूखे पेट सोने की बात कह रहा था। शासन-प्रशासन के सभी दावे और योजनाएं चंद दिनों में दम तोड़ती नजर आई।

खासतौर पर मध्यमवर्गीय परिवार के वह लोग भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हो गए जो अपनी ‘झूठी इज्जत’ के खातिर बीच सड़क पर दो रोटी के लिए हाथ भी नहीं फैला सके। साल जब बीच में आया तो दो वक्त की रोटी की उम्मीदें जगी लेकिन किस्मत ने जरूरतमंदों को यहां भी दगा दे दिया।

रोजगार पूरी तरह से छिन चुका था और बाजार भी ठंडे पड़ गए थे। अंत के तीन महीनों में उम्मीद जगी कि सब कुछ सही होगा लेकिन फिर इस बीमारी के फैलने का डर, चेतावनी के बाद फिर दो वक्त की रोटी के लिए निकलने वाले कदम ‘ठिठकते’ नजर आए। बस आखिर में कोरोना से बचाने की उम्मीद के साथ वर्ष 2020 का आखिरी सूरज दर्द भरी यादों और खुद को बचाने के लिए चली जद्दोजहद के बीच अस्त हो गया।

कोरोना के कारण शासन ने स्कूल बंद करने की घोषणा कर दी। यह घोषणा उस वक्त हुई कि एक सप्ताह बाद नया शिक्षण सत्र शुरू होने वाला था। स्कूल बंद होने के कारण शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से पटरी से उतर गई। शिक्षा व्यवस्था पटरी से उतरने के बाद शिक्षकों के सामने भी रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया।

यह शिक्षक वह थे जो प्राइवेट स्कूलों में तैनात थे, लाकडाउन के कारण बच्चों की फीस न आने के कारण शिक्षकों की सैलरी भी रूक गई। पूरे साल इसको लेकर हो-हल्ला रहा, जहां स्कूल प्रबंधक अभिभावकों पर स्टाफ की तनख्वाह के लिए फीस जमा करने का दबाव डाल रहे थे तो वहीं अभिभावक भी लाकडाउन में आय न होने का हवाला देकर फीस जमा करने में अपने पैर पीछे घसीट रहे थे। कुल मिलाकर इस रस्साकशी का खामियाजा इन स्कूलों में तैनात शिक्षकों को भुगतना पड़ा।

लाकडाउन के कारण सभी कारोबार, व्यापार और दुकानें बंद कर दी गई। यहां पर काम करने वाले हजारों लोग एक झटके में बेरोजगार हो गए। मालिकानों ने भी कारोबार बंद होने का हवाला देकर उनका साथ देने से इंकार कर दिया। रोजगार की तलाश में हजारों लोग दर-दर भटके लेकिन किसी ने सुनवाई नहीं की।

प्राइवेट नौकरी करने वाले बेरोजगार हुए तो आटो के पहिए भी थम गए। कुल मिलाकर डेढ़ माह का वक्त ऐसा बीता कि हजारों कर्मयोद्धा अपने परिवार को पालने के लिए बीच सड़क पर खड़े होकर दो वक्त की रोटी के लिए हाथ फैलाने के लिए मजबूर हो गया। शर्म और लाज की चादर को दरकिनार कर वह घंटों सड़कों पर खड़े होकर उस मसीहा को टकटकी लगाकर देखते कि वह आएगा और खाने का इंतजाम करेगा। क्योंकि शासन-प्रशासन के दावे और व्यवस्थाएं चंद दिनों में ही दम तोड़ती नजर आ रही है। इस दौरान तमाम ऐसे उदाहरण देखने को मिले कि जब घंटों इंतजार करने के बाद भी दो वक्त की रोटी न मिलने पर पालनहार अपने मासूम बच्चों के साथ भूखे पेट सोया।

इस महामारी का असर यह रहा कि पूरे साल में इसकी चपेट में आने वाले 176 रोगियों ने दम तोड़ दिया। कुछ बीमार मानसिक रूप से इतने परेशान हो गए कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। इसके अलावा 11666 लोगों को अपनी चपेट में लिया। गनीमत यह रही कि अधिकतर लोग इस महामारी से बचकर अपने घर सकुशल पहुंच गए।

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