
अशाेक यादव, लखनऊ। विधानसभा चुनावों के अंतिम चरण के मतदान होने के साथ ही विभिन्न एजेंसियों के एक्जिक्ट पोल ने सर्वे के आधार पर राजनीतितक दलों की जीत हार तय कर दी। हालांकि कई बार यह पोस्ट पोल सर्वे सच्चाई के करीब पहुंच जाते हैं तो कई बार इनका अनुमान हकीकत से कोसों दूर रहता है। हालांकि पिछले साल पश्चिम बंगाल और उससे पहले दिल्ली के चुनाव में यह पोल परिणाम से कोसों दूर रहे है।
जबकि बिहार विधानसभा के चुनावों में सर्वे करने वाली एजेंसियां आशिंक तौर पर ही जानदेश से रूबरू करा पाई। जानकारों का कहना है कि विविधताओं भरे उत्तर प्रदेश में किसी सर्वे के जरिये 15 करोड़ से ज्यदा मतदाताओं के मिजाज को पढ़ पाना आसान काम नहीं है। इतनी बड़ी आबादी वाले प्रदेश में एक फीसदी मतदाता भी जीत-हार के गणित में बड़ा उलटफेर कर सकते हैं।
वर्ष 2012 में प्रदेश के विधानसभा चुनाव की तो उस समय विभिन्न सर्वे एजेंसियों ने प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा बनने की आशंका जताई थी। जबकि उस चुनाव में महज 27 फीसदी मतों के साथ समाजवादी पार्टी ने 29 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 224 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी, वहीं 2017 में सपा को 21.8 प्रतिशत वोट मिले और सीटें घटकर 47 रह गईं। हालांकि इस दौरान सपा का कांग्रेस से गठबंधन कर चुनाव लड़ा था और कांग्रेस को भी 6.3 फीसदी वोट के साथ 7 सीटे जीतने में सफलता मिली थी।
वर्ष 2017 में भाजपा ने प्रदेश में 40 फीसदी मतों के साथ बहुमत की सरकार बनाई थी। इन चुनावों में भाजपा के 314 विधायक जीतने में कामयबा हुए थे जबकि गठबंधन के 11 प्रत्याशियों को जीत हासिल की। इससे पहले 2012 में विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा को महज 15 प्रतिशत वोट मिले थे। जिसके चलते भाजपा विधानसभा की महज 47 सीटें जीत पाई थी। इस बार के सर्वे में विभिन्न सर्वे एजेंसियों ने भाजपा को 38 से 40 फीसदी वोट और 215 से 288 सीटें जीतने का अनुमान लगाया जा रहा है।
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