
सुशी सक्सेना : मेरी मां भी एक शिक्षिका थी। हालांकि मेरी मां आज इस दुनिया में नहीं है परन्तु आज शिक्षक दिवस के उपलक्ष्य पर उनकी यह बातें बहुत याद आ रही हैं।
जब मैं छठवीं कक्षा की छात्रा थी तब मेरा पढ़ाई में बिल्कुल भी मन नहीं लगता था। मेरी मां एक स्कूल की अध्यापिका थी और मैं अपनी मां के स्कूल में ही पढ़ती थी । इसलिए मुझे लगता था कि मेरी मां इस स्कूल की अध्यापिका है तो यह स्कूल मेरा ही है। मुझे पढ़ाई में मेहनत करने की क्या जरूरत है। मेरी मां है न, वो मुझे पास कर देंगी। इसलिए मैं कभी पढ़ाई नहीं करती थी। मेरी मां मुझे बहुत समझाती और पढ़ाई करने को कहती, और कभी कभी तो मुझे डांट भी लगा देती। पर मुझे कोई फर्क ही न पड़ता। न तो मैं पढ़ाई करती और न ही कोई काम। पूरा साल मैंने ऐसे ही खेल कूद में गंवा दिया और परिक्षाओं में भी ऐसे ही कुछ भी लिख दिया। क्योंकि मुझे कुछ भी आता ही नहीं था। मैंने साल भर कुछ भी पढ़ाई नहीं की थी। जब रिजल्ट आया तो मैं परिक्षा में फेल हो गई। इस पर मैं अपनी मां से बहुत नाराज़ हो गई और कहने लगी, “आपने मुझे फेल क्यों होने दिया। आप चाहती तो मुझे पास कर देती।”
तब मां को मुझ पर जरा भी गुस्सा नहीं आया। बल्कि वह मुझे प्यार से समझाने लगी।
यदि वह मुझे पास कर देती तो उन लोगों के साथ नाइंसाफी होती जो लोग मेहनत करके पास होते हैं। यह एक अध्यापिका के उसूलों के खिलाफ होता, क्योंकि एक अध्यापिका के लिए सभी छात्र बराबर महत्व रखते हैं चाहे वह कोई भी हो। और उनको उनकी मेहनत के हिसाब से ही अंक देना उसका फर्ज है। बिना मेहनत किए प्राप्त फल की लालसा नहीं रखनी चाहिए। यदि वह मुझे एक बार पास कर देती तो मैं हर साल बिना पढ़ाई किए हुए ही पास होने की उम्मीद रखती। और फिर मेरा पढ़ाई में, या किसी भी काम के लिए मेहनत करने का मन ही न करता और सबकुछ बिना मेहनत के ही पाने की चाह रखती।
मुझे बहुत जल्दी ही अपनी गल्ती का अहसास हो गया और मैंने ठान लिया कि मैं अपनी जिंदगी में खूब मेहनत करुंगी।