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बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय में तुलसीदास एवं प्रेमचन्द जयंती पर आयोजित हुई एक दिवसीय संगोष्ठी

सूर्योदय भारत समाचार सेवा, लखनऊ : बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय में गुरुवार 31 जुलाई को हिन्दी प्रकोष्ठ की ओर से तुलसीदास एवं प्रेमचन्द जयंती के अवसर पर ‘तुलसीदास के साहित्य में समरसता’ एवं ‘प्रेमचन्द के कथासाहित्य में राष्ट्र-बोध’ विषय पर एकदिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राज कुमार मित्तल ने की। मुख्य अतिथि के तौर पर अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय संयुक्त महामंत्री डॉ. पवन पुत्र बादल उपस्थित रहे। इसके अतिरिक्त मंच पर भाषा एवं साहित्य विद्यापीठ, बीबीएयू के संकायाध्यक्ष प्रो. राम पाल गंगवार, हिन्दी विभाग के प्रो. सर्वेश कुमार सिंह, सहायक निदेशक (राजभाषा), बीबीएयू एवं कार्यक्रम संयोजक डॉ. बलजीत कुमार श्रीवास्तव एवं डॉ. शिव शंकर यादव उपस्थित रहे। कार्यक्रम की शुरुआत दीप प्रज्वलन एवं बाबासाहेब, गोस्वामी तुलसीदास एवं मुंशी प्रेमचन्द के छायाचित्र पर पुष्पांजलि अर्पित करने के साथ हुई। इसके पश्चात आयोजन समिति की ओर से मुख्य अतिथि एवं मंचासीन शिक्षकों को पुष्पगुच्छ, पटका एवं स्मृति चिन्ह भेंट करके सम्मानित किया गया। सर्वप्रथम कार्यक्रम संयोजक डॉ. बलजीत कुमार श्रीवास्तव ने कार्यक्रम में उपस्थित सभी लोगों का स्वागत किया एवं सभी को कार्यक्रम के उद्देश्य एवं रूपरेखा की जानकारी दी। मंच संचालन का कार्य डॉ. शिव शंकर यादव ने किया।

कुलपति प्रो. राज कुमार मित्तल ने आयोजन समिति को बधाई देते हुए कहा कि हमें केवल आर्थिक रूप से समृद्ध भारत नहीं चाहिए, बल्कि ऐसा भारत चाहिए जो अपनी संस्कृति, सभ्यता, ज्ञान परंपरा और पर्यावरण के साथ संतुलन बनाकर आगे बढ़े। उन्होंने कहा कि पश्चिमीकरण उपभोग की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है, जबकि भारतीय सोच इसके विपरीत कर्तव्यों और मूल्यों पर आधारित है। हमें पर्यावरण, परिवार और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध बनाए रखना चाहिए। प्रो. मित्तल ने बताया कि शिक्षा का दर्शन एवं आधुनिकता के साथ सामंजस्य होना चाहिए, तभी एक बेहतर भारत का निर्माण संभव है। इसी ज्ञान के प्रसार से भारत का समग्र विकास संभव है।

डॉ. पवन पुत्र बादल ने अपने विचार रखते हुए कहा कि गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस समरसता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें धर्म का अर्थ दूसरों की सेवा करना बताया गया है। ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई’ जैसी पंक्तियाँ यही सिखाती हैं कि सच्चा धर्म वही है जो परोपकार और करुणा पर आधारित हो। तुलसीदास जी ने धर्म को केवल रीति-रिवाजों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे व्यवहार और कर्तव्य से जोड़ा। इन्होंने बताया कि भारतीय ज्ञान परंपरा विमर्श के माध्यम से ज्ञान के नए स्रोतों तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करती है।

प्रो. राम पाल गंगवार ने चर्चा के दौरान कहा कि प्रेमचंद के लेखन में राष्ट्र प्रेम की भावना गहराई से निहित है। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से यह संदेश दिया कि देश की रक्षा के लिए यदि आवश्यक हो तो व्यक्ति को अपना सर्वस्व न्योछावर कर देना चाहिए। वे महात्मा गांधी के विचारों से अत्यंत प्रभावित थे और उनके आदर्शों को अपने साहित्य में जीवन्त रूप से प्रस्तुत किया।

प्रो. सर्वेश कुमार सिंह ने बताया कि भारतीय संस्कृति सभी के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करती है, और यही भावना गोस्वामी तुलसीदास जी के साहित्य में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। समाज में जो व्यक्ति जैसा है, तुलसीदास जी ने उसे वैसे ही स्वीकार किया और अपने काव्य में स्थान दिया।

कार्यक्रम के अंत में डॉ. बलजीत कुमार श्रीवास्तव ने धन्यवाद ज्ञापित किया। समस्त कार्यक्रम के दौरान हिन्दी अनुवादक श्रीमती संध्या दीक्षित, विभिन्न शिक्षकगण, गैर शिक्षण कर्मचारी, शोधार्थी एवं विद्यार्थी मौजूद रहे।

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