
सूर्योदय भारत विशेष : मोतीलाल नेहरू ने अपनी संपत्ति मुख्य रूप से वकालत के अत्यंत सफल और लाभदायक पेशे से अर्जित की । वे अपने समय के सबसे प्रतिष्ठित और उच्च पारिश्रमिक वाले वकीलों में से एक थे
मोतीलाल नेहरू ने 1883 में बार परीक्षा उत्तीर्ण की और कानपुर में वकालत शुरू की । तीन साल बाद, 1886 में वे इलाहाबाद चले गए जहाँ उनके बड़े भाई नंदलाल पहले से ही सफल वकालत कर रहे थे । 1887 में जब नंदलाल की मात्र 42 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई, तो केवल 25 वर्षीय मोतीलाल अपने विस्तृत परिवार के एकमात्र कमाने वाले बन गए
मोतीलाल की वकालत में अभूतपूर्व वृद्धि हुई । जब वे तीस के दशक में थे, तब उनकी आय लगभग ₹2,000 प्रति माह हो गई थी, और जब वे चालीस के दशक में पहुंचे तो यह पांच अंकों (five figures) तक पहुँच गई । उस समय के हिसाब से यह अत्यंत विशाल राशि थी
मोतीलाल ने कई बड़े जमींदारों और तालुकदारों के महत्वपूर्ण मामले संभाले । सबसे प्रसिद्ध मामलों में से एक लखना राज केस (जिला इटावा) था, जो 1894 में उन्हें मिला और तीस वर्षों से अधिक समय तक चला । अंततः प्रिवी काउंसिल में जीतने के बाद, केवल इस मामले के अंतिम चरण में ही मोतीलाल को ₹1,52,000 की फीस मिली। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सर ग्रिमवुड मियर्स ने टिप्पणी की थी कि किसी भी बार में किसी व्यक्ति ने इतनी बड़ी सफलता नहीं देखी
एक अन्य प्रसिद्ध दरभंगा केस में मोतीलाल ने पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर कोर्टनी टेरेल को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने दरभंगा के महाराजा से मोतीलाल की बहुत प्रशंसा की
1909 में मोतीलाल नेहरू ने अपने कानूनी करियर की चरम सीमा तब हासिल की जब उन्हें ग्रेट ब्रिटेन की प्रिवी काउंसिल में पेश होने और पैरवी करने की मंजूरी मिली । उस समय किसी भारतीय वकील का प्रिवी काउंसिल के समक्ष मामले पेश करना अत्यंत दुर्लभ था । मोतीलाल ऐसे वकील बन गए जो नियमित रूप से लंदन में इन उच्चतम न्यायिक मामलों में संलग्न रहते थे
उनके कई महत्वपूर्ण मामले प्रिवी काउंसिल तक पहुंचे। नार सिंह राव बनाम रानी किशोरी मामले में, मोतीलाल ने सर जॉन साइमन के साथ प्रिवी काउंसिल में प्रतिवादियों की ओर से पैरवी की । यह मामला 31 जनवरी 1928 को प्रिवी काउंसिल के निर्णय से समाप्त हुआ । इटावा राज केस में भी मोतीलाल प्रिवी काउंसिल गए, जहां उन्होंने मोबारक अली के साथ मिलकर एक विधवा रानी की ओर से पैरवी की । डुमराओं केस में मोतीलाल के साथ कलकत्ता के प्रसिद्ध बैरिस्टर सर एन.एन. सरकार ने बिहार के आरा में पैरवी की
अपनी सफल वकालत से अर्जित धन से मोतीलाल ने 1900 में इलाहाबाद में महमूद मंजिल नाम का लंबा चौड़ा भवन और इससे जुड़ी जमीन 20,000 रुपये में खरीदी, जिसे बाद में स्वराज भवन के नाम से जाना गया । इस भवन में 42 कमरे थे । 1889 के बाद वे लगातार मुकदमों के लिए इंग्लैंड जाते थे
1930 के दशक में उन्होंने सिविल लाइन्स के पास एक और बड़ी संपत्ति खरीदी, जिसे उन्होंने आनंद भवन नाम दिया । इस भवन को सजाने संवारने में कई साल लग गए और इसमें यूरोप और चीन से आए बेशकीमती सामान और फर्नीचर थे
1920 तक मोतीलाल ने महात्मा गांधी से प्रभावित होकर अपनी सक्रिय वकालत छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े । उन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान वकालत छोड़ने का प्रतीकात्मक निर्णय लिया
1930 में मोतीलाल नेहरू ने अपना पारिवारिक निवास, जो तब आनंद भवन के नाम से जाना जाता था, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को दान कर दिया । इस संपत्ति को उन्होंने कांग्रेस के समर्थन में दान दे दिया । इसके बाद इस संपत्ति को स्वराज भवन के नाम से जाना गया
मोतीलाल नेहरू का जीवन असाधारण पेशेवर सफलता, विशाल संपत्ति अर्जन और फिर राष्ट्रीय आंदोलन के लिए सब कुछ त्याग देने का अनूठा उदाहरण है, साथ ही यह लेख उस सवाल के जबाब देने कोशिश है जिसमें संघी प्रोपेगंडा यह सवाल करता है की पैसे आए कहाँ से ?
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