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बलात्कार पर इमरान खान


के. विक्रम राव
        इस्लामी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री खान मोहम्मद इमरान खान ने गत सप्ताह राय व्यक्त की कि महिलाओं के हल्के परिधान से बलात्कारी प्रवृत्ति को बल मिलता है। सेक्स करने के लोभ को संवरण करने की इच्छा-शक्ति क्षीण हो जाती है। दिल्ली को ‘‘रेप कैपिटल‘‘ करार देकर, पाकिस्तानी वजीरे आजम ने पर्दा की वापसी को आवश्यक बताया। इस्लाम में इसीलिये बुर्का का नियम मुफीद बताया गया है। फिर पाकिस्तान तो दारूल इस्लाम है। भारत जैसा दारूल-हर्ब (शत्रु भूमि) तो है नहीं।
      अपने पूर्व पति की उक्त राय पर टिप्पणी करते इमरान खां की पहली (अंग्रेज) बीबी जेमिमा गोल्डस्मिथ ने खेद जताया कि इमरान अब तालिबानी होते जा रहे हैं। उन्होंने याद दिलाया कि पहले इमरान की तय मान्यता थी कि बजाये बुर्के के पुरुष की आखों पर पर्दा डाल देना चाहिये।
अर्थात् पाकिस्तान में बुर्का लौटने वाला है। भारत के सेक्युलरिस्टों का इस पर क्या कहना है? इस इस्लामी रिवायत का विरोध का अर्थ है मुस्लिम वोट कट जायेंगे।
      कांग्रेसियों और सोशलिस्टों को खासकर हिचक होगी? सोशलिस्टों को उनके प्रणेता राममनोहर लोहिया की बात स्मरण कराई जाय। लोहिया घूंघट तथा बुर्का को पुरुष की दासता का प्रतीक मानते थे। भारतीय पति को वे पाजी कहते थे जो अपनी संगिनी को पीटता है, दबाये रखता है। लोहिया ने कहा था, ’’जब बुर्का पहने कोई स्त्री दिखती है, तो तबियत करती है कि कुछ करें।‘‘ नरनारी की गैरबराबरी खत्म करना उनकी सप्तक्रान्ति के सोपान पर प्राथमिक तौर पर थी।
       इमाम बुखारी सरीखे दकियानूसो ने महिला अधिकारों की योद्धा शबाना आजमी को नाचने-गाने वाली की संज्ञा दी थी। शबाना बुर्का नहीं पहनती। इस मसले पर उनके पति जावेद अख्तर ने दोहरा रूख अपनाया। वे चाहते हैं कि घूंघट और बुर्का दोनों पर एक साथ पाबंदी हो। याद रहे सदियों पूर्व रजिया सुलतान ने बुर्का फेंककर शमशीर उठाया था।         आखिर कौन हैं वे लोग जो महिलाआंे को ढके रखना चाहते हैं ? उनके तर्क क्या हैं ? मजहबी और सकाफती पहचान के लिए उनकी अवधारणा है कि बुर्का आवश्यक है। उनका दावा है कि चेहरा खुला न रहे तो कोई भी हानि नहीं होगी। दिमाग खुला रहना चाहिए, फिर तर्क पेश आया कि बुर्का इस्लामी अस्मिता का प्रतीक भी है।
       मगर इस्लाम का एक सर्वग्राही सिद्धान्त है ‘‘ला इक्फिद्दीन’’ अर्थात मजहब  किसी जबरन बात की इजाजत नहीं देता। तो फिर बुर्का पहनने का फतवा क्यांे ? अभी हाल में एक धर्मकेन्द्र ने फतवा दे डाला कि कार्यालयों में पुरुष की उपस्थिति में कामकाजी महिलायें चेहरा ढकें, अर्थात् बुर्का पहने। क्या ऐसा वातावरण उत्पादकता बढ़ाने में सहायक होगा। अगर इस फतवे को मुस्लिम महिला मानती है तो उनका प्रबंधक नोटिस दे सकता है कि वे घर से निकलने की जहमत न करें। ऐसे प्रगतिविरोधी फतवों का सामुदायिक प्रतिकार होना चाहिए। विरोध में अभियान चलाना चाहिए। 
यदि फिलवक्त मान लें कि पुरातनपंथी, सनातनी, प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक हिन्दू बहुसंख्यक द्वारा बुर्का-विरोध अपनी मुसलमान-विरोधी सोंच के फलस्वारूप होता हैं, तो विश्व के इस्लामी राष्ट्रों का उदाहरण देख ले जहां पर्दा लाजिमी नहीं है। संसार का एकमात्र राष्ट्र जो इस्लाम के आधार पर स्थापित हुआ, पाकिस्तान ही देख लें। टीवी पर, संसद में, कराची और इस्लामाबाद के बाजारों में बेपर्दा महिलायें दिखती हैं। सीरिया ने तो हाल ही में विद्यालयों में बुर्का पर कानूनी पाबन्दी लगा दिया है। इस इस्लामी सीरिया के शिक्षा मंत्री धाइथ बरकत ने कहा था कि निकाब हमारे नैतिक मूल्यों के खिलाफ है। सीरिया अब बाथ सोशलिस्ट गणराज्य है जहां बुर्का कम नजर आता है। काहिरां के मशहूर इस्लामी शिक्षा केन्द्र अल अजहर मेें काफी देखने ढूंढने के बाद भी मुझे बुर्का एक आवश्यक पोशाक के रूप में नहीं दिखा। 
          इस्लामी ब्रदरहुड सरीखे अतिवादियों की धमकी के बावजूद राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने बुर्का को अनिवार्य पोशाक नहीं बनाया था। प्रतिष्ठित इस्लामी विद्वान सय्यद तन्तावी ने निकाब को अनावश्यक बनाया। यह इस्लामी नहीं है, कहा उन्होंने। दो प्राचीन इस्लामी राष्ट्रों का उल्लेख अधिक प्रभावोत्पादक होगा। अफ्रीकी गणराज्य ट्यूनिशिया ने बुर्का, निकाब, हिजब और तमाम मजहबी चिन्हों पर प्रतिबंध लगाया है जो इस समाजवादी, सेक्युलर गणराज्य को मजहबी बना देते हैं अलजीरिया तथा ट्यूनिशिया आदर्श राष्ट्र हैं जहां नब्बे प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। जब फ्रांसीसी केथोलिक ईसाई साम्राज्यवाद के विरूद्ध यहां की जनता स्वतंत्रता संघर्ष कर रही थी तो उनके राष्ट्रनायक अहमद बेनबेल्ला, युसुफ बेनखेड्डा आदि का सपना था कि शोषित राष्ट्र में स्वाधीनता के बाद विकास की, न कि दकियानूसी राजनीति चलेगी। ऐसा ही हुआ। धर्मप्रधान शियाबहुल ईरान भी जब रजाशाह पहलवी के शासन में था तो महिलाओं को परिधान की पूरी स्वतंत्रता थी। मगर जब अयातनुल्ला रोहल्ला खेमेनी ने खूनी क्रान्ति कर इस्लामी गणराज्य बना लिया तो औरत गुलाम से बदतर हो गईं। कभी मुहावरा होता था कि पर्शियन ब्यूटी (ईरानी सौन्दर्य) को देखकर चान्द भी ईर्ष्या करता था। 
लेकिन सेक्युलर भारत में इस बुर्के पर बहस से एक अनावश्यक, अप्रासांगिक और विभाजक माहौल पैदा कर दिया गया। मुस्लिम महिलायें भी नहीं उठ रही हैं यह कहते कि मुल्लाओं की वे जागीर नहीं हैं कि उन पर फतवा थोपा जाय। मगर शिकायत होती है शायरों से, दानीश्वरों से कि उनमे जुनून क्यों नही जगा बुर्का के विरोध में ? अगर बुर्का रहेगा तो फिर नागिन से गेसू, चान्द सा चेहरा, झील सी आखें, कयामती ओंठ और गुलाबी आरिज, सब शब्दकोष के अंदर ही रह जायेंगे। शायरी शुष्क हो जाती। काली और अन्धेरी बुर्के के मानिन्द। 

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