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निर्धनों का समृद्ध अखबार ‘फेसबुक’

आज फेसबुक यानी एफबी की 17वीं जयंती है। इसे फेसबुक की ‘तरुण जयंती’ भी कहा जा सकता है। सन 2004 की 4 फरवरी को मार्क जुकरबर्ग ने विश्व में सोशल मीडिया का सर्वाधिक प्रयुक्त एवं लोकप्रिय सोशल मीडिया वेबसाइट फेसबुक का प्रारंभ किया था। फरवरी माह वैसे भी कई मामलों में खास है। प्रेम के मामले में अैर वसंत पंचमी के लिए भी। ‘प्रेम दिवस’, जिसे ‘वैलेंटाइन डे’ भी कहते हैं, पवित्र फरवरी की ही 14 तारीख को आता है।

‘प्रेम-प्रचार’ का आजकल सोशल मीडिया से अधिक सस्ता, सशक्त और लोकप्रिय अन्य कोई माध्यम नहीं है। अब वह जमाना जा चुका है, जब प्रेमी-प्रेमिका कबूतर के गले में प्रेमपत्र लटका कर ‘कबूतर जा जा जा’ कहते हुए उन्हें गंतव्य की ओर रवाना कर देते थे, पर अब, जब सोशल मीडिया की सुविधा प्राप्त है तो अब प्रेम-पैगाम एफबी के माध्यम से प्रेषित किए जाते हैं। सोशल मीडिया से संदेश अति शीघ्र पूरी दुनिया में पहुंच जाता है और ‘अपना पैगाम मोहब्बत है, जहां तक पहुंचे’।

प्यार ही क्यों, किसी भी प्रकार के प्रचार-प्रसार के लिए एफबी से अधिक शीघ्रगामी और सुदूरगामी अन्य कोई माध्यम नहीं है। अब मात्र स्थानीय व क्षेत्र के कागजी अखबारों में छपने के लिए माइक, मंत्री, दरी, फर्नीचर, चाय, समोसा, श्रोता, वक्ता आदि को जुटाकर पुस्तक विमोचन आदि के कर्मकांड लगभग मूर्खता के पर्याय बन चुके हैं। समझदार लोग अब इन कार्यक्रमों का उद्यापन कर चुके हैं। आज के ऑनलाइन पेपर्स ने लाइनऑन पेपर को काफी अंशों में निष्प्रभावी कर दिया है। पूर्व जैसे ‘विमोचन’, ‘समर्पण’ में एक और खतरा है। कोई आपसे कहे- ‘भाई साहब। संचालन मुझ से ही कराना। मुझसे अच्छा संचालन कोई नहीं कर सकता।’ और आपने उससे संचालन नहीं कराया तो अगला जीवन भर के लिए खुन्नस मान बैठेगा।

वास्तव में एफबी विश्व भर के उन लोगों का अखबार है, जिन्हें कोई कागजी अखबार यानि न्यूज पेपर छापने का साहस और मन नहीं करता है। पत्रकारिता को लोकतंत्र का ‘चतुर्थ स्तंभ’ और पत्रकार व संपादक को कितना ही ‘स्वतंत्र’, ‘निष्पक्ष’ और ‘निडर’ कहा जाए, पर अधिकतर दैनिक पूंजीपतियों के ही होते हैं, अपवाद को छोड़कर, वे भला हर बात नहीं छाप सकते। अखबार से देश के शीर्ष अधिकारी प्रभावित रहते हैं तो नीचे वालों की क्या औकात है। मुझे एक दैनिक समूह के स्वामी का यह कथन याद आ रहा है- ‘मुझे दैनिक के संपादक की हैसियत से प्रधानमंत्री (अटल) से मिलने में कोई परेशानी नहीं होती थी। जब से सांसद बना हूं, उनसे (अटल जी से) मिलने में परेशानी हो रही है।’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वप्रमाणीकरण ( सेल्फ अटेस्टेशन) को मान्य किए जाने जैसी क्रांतिकारी सुविधा आज का सोशल मीडिया का अखबार है। एक जमाना था, जब प्रपत्रों के प्रमाणीकरण के लिए बहुत परेशान होना पड़ता था। (गत सदी के आठवें दशक में जिस विद्यालय में मैं शिक्षक था, उसका प्रिंसिपल प्रत्येक प्रपत्र के सत्यापन के लिए 50 पैसे लेता था। बाद को उसने एक रुपया कर दिया, जबकि कंपेयरिंग व चेकिंग मेरे जैसे उल्लू अध्यापक किया करते थे।)

अब न करो सत्यापन, न लगाओ सत्य प्रतिलिपि प्रमाणित की सील और न बैठाओ उस पर चिड़िया। हम खुद अपने पत्रों को सत्यापित कर लेंगे। कर ही रहे हैं। न छापों हमारे लेखों को हम एफबी के स्क्रीन पर अपने लेख खुद प्रकाशित कर लेंगे। कर ही रहे हैं। तुम्हारा कागज का अखबार सीमित क्षेत्र तक ही जाता है, जबकि हमारा एफबी पूरी दुनिया में जाता है। एफबी का एक अन्य बड़ा लाभ यह है कि कागजी पेपर का संपादक जिन चीजों को छिपाता है, उन्हीं को इस पर धड़ल्ले से छापा जा सकता है। छापा ही जा रहा है। जय हो फेसबुक।

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